Thursday, December 29, 2011

For Teen Paati...(For Ms. Sunita Lakhera) - Ithlaati, Athkheliyan aur Manoram

‎"ठीक है".....उसने शरारत भरी मुस्कराहट के साथ अपने सतरंगी आँचल के किनारे को अपने श्वेत दन्त पंक्तियों के बीच दबाते हुए कहा कहा - "तुम कहते हो तो...मैं मान लेती हूँ...कि तुम मुझसे प्रेम करते हो, लेकिन....लेकिन मैं.. तो तुम्हें नहीं चाहती" कहकर वो धीमी मुस्कराहट के साथ इठलाती नदी की अठखेलियों को निहारने लगी..और मैं...मैं उसे....
अचानक मेरी ओर तिरछी नज़र करती हुई वो बोल उठी... "ऐसे क्यूँ देख रहे हो"
मैं फिर भी कुछ न बोला..और यूँ ही मंद-मंद मुस्कुराते हुए उसे निहारता रहा.. उसने फिर मेरी ओर देखा...पर कुछ नहीं बोला....मुझे उसकी आँखों मैं उसका सच उभर कर मुझे दिखाई देने लगा था... उसके गालों की लाली और कंपकंपाते होंठ इस बात की गवाही दे रहे थे..कि वो भी मुझे उतना ही चाहती है..जितना कि मैं उसे...वो मुझसे अधिक देर तक नज़रें नहीं मिला पाई... और फिर से प्रकृति के उस मनोरम दृश्य को निहारने लगी.....शायद इन खामोशियों की भी अपनी आवाज़ होती है...जिसे केवल खामोश रह कर ही सुना जा सकता है... 29/12/2011

For Teen Paati - (Baba Jays) - Abhivyakti, Kaamna aur Aasakti

"अभिव्यक्ति वह दर्शन है जो व्यक्ति के आतंरिक भावों को उसके ही शब्दों द्वारा प्रदर्शित करता है..और वह मौलिक होती हैं...
लेकिन कामना और आसक्ति उसकी कमजोरी होती है...और यह मौलिक होने के साथ-साथ परार्षित होती है..यह पैदा होती है..बढती है, पलती है....और एक दिन नष्ट हो जाती है...लेकिन अभिव्यक्ति कभी नष्ट नहीं हुआ करती.....
इसको आप ऐसे समझ सकते हैं...जैसे ये शरीर तो आपका है..साथ ही इसके गुण-अवगुण, इसका आकार-विकार, इसके कर्म-कर्तव्य भी आपके हैं...और यह नश्वर है...इसे  एक दिन नष्ट होना ही है....लेकिन आत्मा....आत्मा आपकी नहीं है...अगर वो आपकी होती तो वह आपका शरीर कभी नहीं छोडती... उसपर केवल परमात्मा का अधिकार है...और वही इसके लिए नए वस्त्र या शरीर का निर्माण करता है...
"अहम् ब्रह्मा अस्मि" ये शब्द आपके नहीं हैं...ये आत्मा के हैं.. और एक शुद्ध आत्मा कामना और आसक्ति से दूर ही रहा करती है... यदि वह किसी कारण से इन आसक्तियों अथवा कामनाओं से दूर नहीं हो पाती तो वह ब्रह्म में एकाकार नहीं हो पाती और न ही नए शरीर को धारण कर पाती है...क्योंकि जब तक आत्मा आसक्त रहेगी वह भटकती ही रहेगी"    "शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - ३०/१२/२०११  

Wednesday, December 21, 2011

For Ms. Kiran Arya - 19/12/2011 - Bhatkaav aur Thahraav

सही कहा..... प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी ने.... एक "जीवन दर्शन"....

भटकाव और ठहराव.....
"भटकना मनुष्य की प्रकृति है... और ठहराव उसका मोक्ष...तो मनुष्य हमेशा से ही भटकाव की स्तिथि से ठहराव की स्तिथि की और प्रयत्नशील रहता है....लेकिन ऐसा नहीं है की उसे भटकना नहीं चाहिए...उसे जरूर भटकना चाहिए...क्योंकि...भटकाव ही वो स्तिथि है..जहाँ वह स्वयं एवम मनुष्यता का विस्तार करता है..उस अवधि में उसके लिए ठहरना...अनिवार्य नहीं... ठहराव उसे इन सब परिस्थितियों से अलग ले जाता है...और वह एक योग की स्थिथि होती है...जहाँ कर्ता (मनुष्य) कर्ता (ईश्वर) के संपर्क में आ जाता है और अपना अस्तित्व उसके अस्तित्व में मिला देता है... तो.... ठहराव तो आपका अंतिम लक्ष्य है... भटकने से...मनुष्य को ज्ञान और अनुभव के साथ -साथ जीवन को जीने का अनुभव भी मिलता है... लेकिन ये आंशिक अथवा अधूरा सत्य है......सत्य तो केवल एक ही है....वो है...मोक्ष अथवा ठहराव
"शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १९/ १२/ २०११

For Teen Paati - (Pratibimb ji) - Tark, Vitark, Kutark - 22/12/2011


"तर्क सुशब्द सार्थक सदा,
वितर्क विलोम विधाय !
जेहि अक्षर नहीं घर-घट,
सोही कुतर्क कहलाय !! "
अर्थात - "किसी सार्वभौम विषय पर अपने शब्दों को समुचित और सार्थक रूप से रखने की विधि तर्क कहलाती है, वहीँ यदि उसी विषय पर आलोचनात्मक या विपक्ष टिपण्णी की जाती है तो वो वितर्क कहलाता है. और जो शब्द विषय से भटके हुए होते हैं, जिनका उस विषय से कोई सरोकार नहीं होता, अथवा जिन शब्दों का न घर होता है न संसार...वो कुतर्क कहलाते हैं.."
"शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी २२/१२/२०११

Tuesday, December 20, 2011

For Ms. Kalpana Pant - Pushtak Mitra - 20/12/2011


कल्पना जी,
सादर नमस्कार !!! बहुत ही उत्तम विचार आपने प्रस्तुत किये.... धन्यवाद......
प्राणी आदिकाल से ही नैसर्गिक रहा है... वह प्रकृति के बीच रहकर...प्रकृति से ही सीख कर अपना विकास करता आ रहा है.. और यही नैसर्गिकता उसको आज यहाँ तक लाने में सहायक रही है... जहाँ तक मानव मस्तिष्क की बात है.. उसने अपना बौद्धिक विकास नैसर्गिकता के माध्यम से ही किया है.. आपकी बात पूर्णतया सही है..कि बाल मस्तिष्क की उर्वर भूमि में उसी प्रकार के बीज बोने चाहिए... जो वहां भली भांति अंकुरित हो सके... लेकिन किसी बीज को जमीन में केवल रोप देने से...वह अंकुरित नहीं हो पाता...उसे जरूरत होती है.. प्रकाश (ऊष्मा), जल एवं वायु की... जो उसके भली भांति पनपने के लिए सहयोगी होता है...और पनपने पर वक़्त आने पर स्वादिस्ट फल एवम फूल भी देता है... मैं मानता हूँ...कि कुछ पौधे रेगिस्तान की तपती भूमि में, बिना जल के भी पनप जाते हैं.. लेकिन उनपर कांटे भी लगे होते हैं.. ये भी याद रखने योग्य बात है.....
इसी प्रकार मैं मानता हूँ....कि बालकाल का कुछ समय शिशु अपने चारों ओर देखकर...स्वयं समझकर...परखकर गुजारता है...जहाँ से वह काफी कुछ सीख पाता है.. कुछ और बड़ा होने पर...वह और अधिक जिज्ञासु हो उठता है..क्योंकि ज्ञान को पाने कि ललक ही मानव की; प्रकृति है.. तो उसकी जिज्ञासा उसके सामने कई प्रश्न खड़े कर देती है... जिनका उत्तर बहुतायत वह प्रकृति से या परिवार से पा लेता है..लेकिन कई प्रश्न ऐसे भी होते हैं..जहाँ प्रकृति और परिवार उसका जवाब नहीं दे पाते..तो ऐसे वक़्त पर यन्त्र, तर्क और प्रतिष्ठित ज्ञान उसकी इस भूख या जिज्ञासा को शांत करते हैं...तभी वह समुचित रूप से अपना विकास कर पाता है... 
अत: नैसर्गिकता के साथ-साथ बच्चों का यांत्रिक, तार्किक ज्ञान भी बहुत आवश्यक हो गया है... क्योंकि आप अगर गौर से देखेंगे तो पायंगे की प्रकृति या नैसर्गिकता भी एक तरह से विज्ञान ही है...क्योंकि इसके भी कुछ नियम होते हैं...और यह भी पैदा होती है...बढती है...और नष्ट होती है....एक मनुष्य अथवा किसी भी प्राणी की तरह..... "शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी  

For Teen Paati... 19/12/2011

कोहरे के बादल पर अंकित,
धुंध सी कोई कल्पना तेरी...
कभी छंट जाती, कभी छा जाती, 
यही यादों का अंदाज़ मेरी....  
"तेरी कल्पना...तेरी.. तस्वीर...जैसे कि कोहरे के बादल में लिपटी हुई....कभी दिखाई देती...कभी खो जाती....जैसे मेरी यादें......."

For Teen Paati... 19/12/2011


दिल के जख्मों को क्यूँ कुरेदे यहाँ, 
बीते पल की यूँ कोई बात न कर....
मेरी खामोश निगाहों का रख कुछ तो भरम, 
जलती आखों से न देख, कोई सवाल न कर.... (सुर्यदीप) १९/१२/२०११)  
 

For Teen Paati.... 19/12/2011


गुलो-गुलजार हुआ दिल, उनका दीदार हुआ..
आज किस्मत पे खुदकी, मुझको, ऐतबार हुआ..... 
हम परेशां थे कि, भुला किये है वो हमको ...
बाखुदा आईने से फिर, मुझको प्यार हुआ.... {सूर्यदीप} 19/12/2011  

Thursday, December 15, 2011

For Ms. Sunita Lakhera - Teen Paati - Kar, Kavi Kalpana - 15/12/2011


"ब्रह्म रचे ब्रह्माण्ड को, कर दिनकर-निशि एक,
क्षण में सृष्टी रचाई  दे, कर कवि कल्पना एक !!" 
अर्थात - "जिस सृष्टी को रचने के लिए ब्रह्मा अपने हाथों से अनवरत प्रयास रत रहते हैं.. उसकी रचना एक कवि, मात्र कल्पना से ही कर देता है ".


 सुर्यदीप - १५/१२/२०११ 

Wednesday, December 14, 2011

For Mr. Pratibimb ji - Darshan - 15/12/2011


प्रतिबिम्ब जी... आपकी इन पंक्तियों में एक "दर्शन" है... लेकिन मैं फिर भी एक दृष्टांत कहना चाहूँगा.....शायद इससे इस दर्शन को समझा जा सके.... :) 
कुछ लोग होते हैं.. जो रास्ते के पत्थरों को ठोकर मार कर आगे बढ़ते चले जाते हैं....और अपनी मंजिलों को पा जाते हैं...
मंजिल या सफलता को पाने के पश्चात वह जल्दी - जल्दी उसका भोग करने लगता है...और वही सफलता उसके व्यक्तित्व पर हावी हो जाती है, और उसके वास्तविक व्यक्तित्व या वजूज़ को उससे बहुत दूर कर देती है, फिर जब सफलता का उन्माद खत्म होता है, तो उसे अपने आस पास अपने सिवा कोई नज़र नहीं आता, वह फिर से उठना चाहता है, लेकिन सफलता का नशा जो की उसकी कमजोरी बन चुका होता है, उसे खड़ा नहीं होने देता....वह फिर से अपनी मंजिल तलाशने चल पड़ता है, रास्ते में उसे वही पत्थर फिर से मिलते हैं...लेकिन अब उसके बाजुओ में वो ताकत नहीं होती की वो उसे उठाकर साथ ले जा सके...वो उन्हीं पत्थरों से सर टकरा-टकराकर अपने आप को ख़त्म कर देते हैं....
कुछ लोग होते हैं.... जो रास्ते के पत्थरों को ठोकर नहीं मारते, अपने साथ-साथ लाद कर ले जाते हैं...पर मंजिलों को जरूर पाते हैं...चाहे कुछ देर से ही क्यों ना... वो अपनी सफलता का स्वाद चख-चख कर लेते रहते हैं....जिससे सफलता का नशा उनपर हावी नहीं हो पाता और वह सफलता के साथ-साथ चलते चलते अपने वजूद या व्यक्तितिव को भी मूल रूप से बनाये रखे होते हैं...उसे ख़त्म नहीं होने देते. यदि दुर्भाग्यवश कभी सफलता उन्हें छोड़ के चली भी जाती है..तो वो निराश नहीं होते... वो अपनी बंद अलमारी में से रास्ते के उन पत्थरों को बाहर निकालते हैं...और उनको देख और परख कर वापस उन्हें संभल देते हैं...भावी उत्तराधिकारियों के लिए.. और वो खुद फिर से अपनी मंजिलें तलाशने निकल पड़ते हैं....उन्हें मंजिल बहुत जल्द मिल जाती है....क्योंकि उनके रास्ते में उन्हें वो पत्थर नहीं मिलते..जो उसकी सफलता में रुकावट थे...क्योंकि उन पत्थरों को उसने बहुत पहले ही अपना लिया था...और उनका हल भी खोज लिया था...
तो जब भी आप किसी मंजिल की ओर चलें...तो रास्ते में आने वाली तमाम रुकावटों, पत्थरों को अपनाते हुए, उनका हल निकालते हुए, अपने साथ लेकर चले...ताकि आपके चेहरे पर...आपके व्यक्तितिव पर...उन रुकावटों, समस्याओं को हल करने का अभुभव आपके साथ ताउम्र रहे.... "शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १५/१२/२०११ 

Saturday, December 10, 2011

For Mr. Ramesh Barola - Pagalpan, Deewanapan aur Psycho - 10/12/2011

दीवानापन और पागलपन वह अवस्थाएं हैं जहाँ आपका मस्तिस्क आपके नियंत्रण में पूरी तरह नहीं रह पाता.
ये वो अवस्था या स्तिथि होती है जब आपके दिमाग में केवल एक ही चीज़ हर समय विचरण करती रहती है, और उसी जगह पर आपका मस्तिस्क अपने विचारों को रोक लेता है इसलिए वही उस व्यक्ति की जिंदगी बन जाती है और उसे ही वह बार बार दोहराया करता है, लेकिन जैसा कि आपने इन शब्दों को किसी को चाहने के सन्दर्भ में लिया है तो उसी सन्दर्भ में कहना चाहूँगा कि "जब आप किसी को इस तरह से चाहने लगते है, कि आपके दिमाग पर, आपके व्यक्तित्व पर वो एक नशे की तरह छा जाता है, और उसी के बारे में सोचना, बोलना या उसी को देखना आपका दिमाग पसंद करने लगता है, यही अवस्था पागलपन और दीवानेपन की हद तक किसी को चाहना होता है, ऐसी स्थिति में किसी को चाहना एक हद तक ही होता है, और यहाँ आपके प्रेम में आपका स्वार्थ हावी नहीं रहता. लेकिन...
phycho (साइको) एक प्रकार का मनोरोग है, एक भ्रम है, जहाँ किसी भी चीज़ या किसी को पाने की लालसा उसके मन-मस्तिष्क में ही नहीं, अपितु उसके अमर्यादित व्यवहार में भी दिखाई देती है, चाहना बुरी बात नहीं, लेकिन छीनना बुरी बात है, यहाँ phyho (साइको) व्यक्ति यही करता है, उसका प्रेम, प्रेम न होकर आसक्ति बन जाता है, जो ठीक नहीं, और इसका इलाज़ जरूरी है.
"संक्षेप में किसी की पूजा करने में बुराई नहीं है, लेकिन उस पर आसक्त होना ठीक नहीं" "शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १०/१२/२०११

Thursday, December 8, 2011

For Ms. Kusum Sharma - Teen Paati - Tootte, Judte, Bhoolte - 9/12/2011


टूटते खाब, सिसकते अरमा,
हर किसी आँख में नमी क्यूँ है !
दर्द का रिश्ता यहाँ, जुड़ते क्यूँ लगे सदियाँ,
दिल के कौने में ये कमी क्यूँ है !
क्यूँ नहीं भूलते कि अब हम हैं नहीं,
उनके चेहरे पे ये ग़मी क्यूँ है !  {सुर्यदीप}  9/12/2011

For Mr. Ashok Rathi - 9/12/2011 - TEEN PAATI - SAT RAJ TAM


सत मानस एक रूप हरी, रज एक मूल विधाय,
तम एक खंभ महेश सम, सृष्टी देहि रचाय !!   
अर्थात - पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सत को एक बीज की संज्ञा दी गई है, बीज जहाँ से उत्पत्ति होती है, और उसे हरी अथवा विष्णु के सामान माना गया है.
रज को एक जड़ माना गया है, जो बीज से उत्पन्न हुई है और ब्रह्मा उनका नाम है, इसी प्रकार जड़ से उत्पत्ति हुई है एक स्तम्भ की, एक तने की, जो शिव शंकर का पर्याय है, इन तीनों गुणों से मिलकर सृष्टी का निर्माण हुआ करता है. कई जगह इन तीनों शब्दों का उल्लेख वानस्पतिक संधर्भ में भी लिया गया है. {सुर्यदीप}

Saturday, December 3, 2011

For Mr. Anoop Bosliyal - Teen Paati - 3/12/2011

गंगा कलि-मल हारिणी, जमुना पालनहार !
सर-सर जुड़ भई सरस्वती, देहि अन्न अपार !! सुर्यदीप - ०३/१२/२०११

Friday, December 2, 2011

For Mr. Shastri RC - Teen Paati - 3/12/2011

नव निधि, दस गुन ते सदा,
जेहि भूषण कर्म, सुज्ञान !
बिपदा पल संग छाडिहें,
हरी उपासना, नित ध्यान !!!
अर्थात - जिस व्यक्ति के आभूषण ही सुकर्म और सुज्ञान होते हैं, उसी के पास नव निधियों का सुख और सदगुणों का साथ होता है.
और नित्य ध्यान और हरी की उपासना करने से कोई भी विपत्ति पल भर में ही आपका साथ छोड़ देती है. "शुभ

Thursday, December 1, 2011

For Mr. Vishal Agarwal - Teen Pati - 02/12/12

दर्द चेहरे का छिपाएं कैसे,
ये कसक उम्र की कमाई है,  
दिल ने दागों का हो बयां कैसे, 
दिल ने दिलबर से चोट खाई है....
रूह तो नाम कर ही दी उसके, 
बात अब जिस्म की भी आई है.. !!!  सुर्यदीप 

Wednesday, November 30, 2011

For Mr. Ashvani Sharma - Bachhe Bade Ho Gaye Hain.. 01/12/2011

स्पर्श - किसी भी ज्ञान को प्राप्त करने के लिए... सम्बंधित कर्ता या कर्म का स्पर्श आवश्यक होता है.. किसी चीज़ को अपने हाथों से छूकर ही हम उसके बारे में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते है...
इन्टरनेट, कंप्यूटर,चलचित्र आदि द्वारा हमारा मन और मस्तिष्क किसी भी वस्तु, जीव से सम्बंधित ज्ञान बिना उसको स्पर्श किये पा तो सकता है, लेकिन उसको आत्मसात या अनुभव नहीं कर सकता. अत: आज की काल्पनिक दुनियाँ आपको ज्ञान तो बाँट सकती है, लेकिन आपको उसका आत्मसात या अनुभव नहीं करा सकती और ऐसा ज्ञान एक अपूर्ण ज्ञान ही कहला सकता है.  
आपकी रचना सही मायने में आपके भीतर से निकली हुई और अनुभव की हुई एक ऐसी वेदना है जिसकी पीड़ा इस कविता के शब्दों से महसूर हो रही है, साथ ही इस पीड़ा से जो रस टपक रहा है वो हर किसी की अंतरात्मा तक को भिगो रहा है...और यही गीलापन हमें आपकी सवेदना को स्पर्श करने की अनुभूति दे रहा है..

Tuesday, November 29, 2011

For Mr. Pratibimb - Teen Pati - 30/11/2011


तज बसनहूँ, बिनु बासना, मन करि गुरुजन ध्यान,
नरहूँ नर वो श्रेष्ठ है, सदगुरु पावत ज्ञान !! 
अर्थात - जो बुरे व्यसनों का त्याग करते हुए, बिना कामना या स्वार्थ के अपने गुरु जन का ध्यान करता है. सदगुरु उसी नर को नरों में श्रेष्ठ मानते हैं और वही सदगुरु के ज्ञान को पाने के लायक है..  'शुभ' - सुर्यदीप - ३०/११/२०११ 

For Ms. Gunjan - Dil ki Kharonche... 30/11/2011

दिल के जख्मों को मैं छुपा भी लूं...
पर अश्कों की कहानी ये जग जाने..... "सुर्यदीप"

For Mr. Sundar Srijak - 30/11/2011 - Raam & Raawan

रेखाएँ....सीता के लिए ही खींची गई थी...और आज भी...आज भी वही रेखाएं... हर सीता के सामने खींच दी जाती है.. समाज में बसते उस रावण के डर से...उसे आज भी एक निश्चित क़दमों तक ही चलने दिया जाता है...वह आज भी बंधक है... उसके परों को काट के..उसको उड़ने से रोक दिया गया है...
राम का रावण बन जाना अभी भी छुपा हुआ है.... क्योंकि उसका छुपा रहना ही राम का अस्तित्व है...तलाश हम जानबूझ कर नहीं करते...या करना नहीं चाहते... दूसरी ओर रावण का राम रूप भी छुपा दिया गया है...क्योंकि हर कहानी में एक खलनायक होता ही है... बिना उसके नायक को पूजा नहीं जाता...और जहाँ नायक खलनायक पर येन केन प्रकारेण विजय प्राप्त नहीं कर पाए...तो वो कहानी भी अधूरी ही रहा करती है..... 'शुभ

For Teen Pati - Ghat Ghat Ghat.... 29/11/2011

मित्रो, आप सभी के सुन्दर शब्दों की माला से अभिभूत हुआ...आप सभी का धन्यवाद.. :)
घट-घट काहे भटके रे घट,
घट भीतर घर ना पहचाने !
आतम रूप अनंत अनंदित,
प्रभु मारग सो ही जाने !!
हे मन, तू इधर-उधर सांसारिक भ्रमण क्यों कर रहा है, तेरे शरीर रूपी घर के भीतर क्यों नहीं झांकता, वहाँ तुझे आत्मा रूपी आत्मसुख मिलेगा, जिसको पाने का सुख अनंत है और आनंद से परिपूर्ण है, इस आनंद इस सुख को पाने के पश्चात प्रभु को पा लेना कोई बड़ी बात नहीं.

Sunday, November 27, 2011

For Mr. Pratibimb ji - Teen Paati..28/11/2011

तेजोमय मुख, उल्लासित,
दया-धर्म प्रवृति, है शोभित,
श्रीराम लखन लख द्वार खड़े, 
सबरी है अचंभित, सम्मोहित !! {सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी} 

Wednesday, November 23, 2011

For Mr. Rajendra Kunwar Fariyadi - Teen Pati - 24/11/2011

प्रथम गुरु सनमान माँ,
दूजो है परिवार ! 
तीजो दे मति, सत सदा, 
शिक्षक पालनहार !!  सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - २४/११/२०११ 

for Ms. Mamta Joshi - (Teen Paati) 23/11/2011

तेरी आँखों से छलकती है जो,
मय वो मयस्सर कब होगी...
खाली पैमाना लिए बैठे हैं..
दर पे तेरे कब से ओ साकी....! :) गुस्ताखी माफ़

For Mr. Pratibimb ji... (TEEN PAATI)... 23/11/2011


प्रतिबिम्ब जी, जब श्रीराम लखन और सीता जी, रावन संहार करके अयोध्या लौटते हैं तो..
मुदित मोहित, सर्व जन लख,
सिय-राम लखन पधारते, 
दीप प्रज्जल रहत घर-घर,
प्रभु गर्व पर्व निहारते  !!! सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - २३/११/२०११  

Tuesday, November 15, 2011

for Mr. Maya Mrig - Purani Yaden...16/11/2011


वक्त के बंद पिटारे में, एक बात पुरानी है अब भी जिंदा, 
ख़त के पुर्जों में, बिखरी वो कहानी है अब भी जिंदा, 
अपने अश्कों की नमीं, जो लफ़्ज़ों से की थी तूने बयाँ,
बीच कागज़ के छिपे फूल में वो नमीं है अब भी जिंदा,
सुर्यदीप - १६/११/२०११ 

for Mr. Sanjay Kaushik Kaushik......
कागज़ के फूल कभी खुशबु नहीं देते...सिर्फ एक एहसास देते हैं...वो भी पल दो पल का...
लेकिन...वो ख़त के बिखरे पुर्जे...वो आंसुओं से भीगे हुए ख़त....हमेशा जिंदा रखते हैं इन अहसासों को...

Friday, November 11, 2011

For Ms. Nutan Gairola - Man ka Antardwand..... 12/11/2011

मन का अपनापन, मन ना समझे,
कभी चुप बैठे, कभी शोर करे !!
रहे चित्त सदा समाधी मैं,
पर मन की उलझन कहाँ ठौर करे !!

अंतर्दृन्द की यही परिभाषा है... मन चाहे तो भी वो एक जगह चुप नहीं बैठ सकता, उसे किसी ना किसी कारण से अपना मौन तोड़ के शब्दों के सहारे अपनी अभिव्यक्ति देनी ही होती है...यद्यपि मन का स्वभाव एक योग की तरह होता है, जो उसे प्रिय भी है..लेकिन सांसारिक विपदाएं, बाधाएं उसे मौन नहीं रहने देती और अपने मन की शांति और सुकून और योग को बनाये रखने की लिए उसे बाहरी उलझनों, कलहों, अशांतियों को दबाने के लिए, शांति स्थापित करने के लिए...मौन व्रत तोडना ही होता है.... "शुभ" सुर्यदीप

Monday, November 7, 2011

for Ms. Renu Mehra ..... 08/11/2011

डूब के तन्हाईयों में, जो बसर हो जाएगी,
याद है तेरी, उम्र नहीं, जो गुजर जाएगी !!
माना इक तू ही नहीं, पर प्यार तेरा नस-नस में,
याद के फूल जब भी खिले, तन्हाईयाँ निखर जाएगी !!

"सुर्यदीप" ०८/११/२०११

For Mr. Pratibimb ji - jeevan ki sahajta aur samjhaute... 8/11/2011

सहजता ही सरलता और सुगमता लाती है. जहाँ तक हो सके सहज रहें...जिंदगी में सुगमता रहेगी.
समझौता जीवन का इक ऐसा पहलु है जिसे आप अनदेखा नहीं कर सकते, ये किसी बीमारी के उपचार के लिए लगाया गया वो मलहम है, जिसे लोग अपना स्पर्श देकर बाहरी शरीर पर लगाते हैं पर इसका असर भीतर तक होता है. कई लोग मलहम की जगह गोलियों (tablets) का प्रयोग करते हैं, जिसे निगलना होता है..यहाँ उनकी मजबूरी होती है... पर असर वो भी करती हैं. अतः समझोते जिंदगी से जुडी ऐसी सच्ची कहानियां होती हैं, जिन्हें हमें सुनना होता है, समझना होता है और उस पर अमल भी करना होता है.
आपके सामने सच बोल सकें, चाहे वो आपके लिए अच्छा हो या बुरा, ऐसे ही मित्र वास्तविक मित्र होते हैं. पीठ पीछे की गयी प्रसंसा या बुराई केवल भ्रम ही है जिसका अस्तित्व गौण होता है. क्योंकि पीठ पीछे की गई बातें (अच्छी या बुरी) आपके पास आते-आते अपना रंग, रूप, स्वाद और महत्त्व खो देती है. 
लेकिन इंसान कभी भी इक सा नहीं रहता, परिवर्तन उसके लिए जरूरी है, चाहे वो शारीरिक हो या वैचारिक, शरीर पर तो उसका बस नहीं, लेकिन विचारों में फेर बदल करते हुए इंसान अपने आपको समय के अनुरूप ढाल सकता है. अब विचार अच्छे हैं या बुरे, किसे उसे ग्रहण करना है किसका उसे त्याग करना है, इसका निर्णय उस इंसान का विवेक और बुद्धि पर निर्भर होता है. इसीलिए हमें आज के वातावरण में ऐसे बिरले इंसान कम ही मिलते हैं जो हमेशा अपने कुछ चंद उसूलों या निर्णयों के लिए ही जिया करते हैं. 

Friday, November 4, 2011

for Mr. Pratibhim ji - Desh ki vartman dasha par.. 05/11/2011

प्रति जी, बहुत ही ओजस्वी रचना, धन्यवाद....
देश की जो असल ताकत है वो है जनता.. जनता मतलब आम आदमी. एक आम आदमी चाहे तो आँधियों का रुख भी बदल सकता है..
लेकिन राजनीती बहुत ही भ्रष्ट होती है, राजनीति को यदि आज के दौर में परिभाषित किया जाये तो इससे बड़ा भ्रष्ट, कमीनापन और कहीं नहीं मिलेगा.
आज की राजनीति ने एक आम आदमी से उसका चैन और सुकून दौनों ही छीन लिए हैं...और उसके पैरों में मजबूरियों की ऐसी बेडी डाल दी है, कि वो चाह कर भी उठ कर खड़ा नहीं हो सकता.. राजनीती ने, भ्रष्ट शासन ने इसके इर्द-गिर्द इतनी परेशानियाँ बढा दी हैं कि वो ताउम्र उन्हीं परेशानियों में परेशान होते, उन्हीं उलझनों में उलझते अपनी जान दे देता है.
सरकार या राजनीती यही चाहती है कि एक आम आदमी के लिए सिर्फ जीना ही बहुत बड़ा काम हो जाये...उसे ये लगे कि उसे जीने के लिए किसी न किसी तरह चंद साँसें मिल जाये वही काफी है...इससे आगे वो न तो सोच पा रहा है...न ही सोचने की ताकत उसके मस्तिस्क में बची है..
आपकी ये जोशीली पंक्तियाँ लोगों को उठकर जागने को प्रेरित करती हैं...लेकिन जो लोग सो ही नहीं पा रहे हो...वो भला कैसे जाग सकते हैं...और हो भी यही रहा है..चैन और सुकून की नींद आज के आम आदमी को नसीब है ही नहीं.... लेकिन मैंने भी झरनों को अक्सर पत्थरों का सीना चीरकर बहते हुए देखा है...और यही उम्मीद है की शायद किसी दिन किसी पत्थर का कलेजा चीर कर कोई न कोई झरना जरूर बहेगा..... शुभ {सुर्यदीप} - ०५/११/२०११ 

Wednesday, October 19, 2011

For Mr. OM Prakash Nautiyal - Ganga Nadiya - 19/10/2011

तरल तरंगिनी, पाप विमोचनी,
दुःख निवारिणी है गंगा,
मोक्ष प्रदायनी, भव भय हारिणी,
जन-जन जननी है गंगा,, {SURYADEEP}

for Myar Pahada (SN Ranjeet) - 19/10/11

नाम मज़हब का कुछ और ही रख दो यारो,
नाम पर इसके लूटे और गिरे घर कितने !!
बात कुछ भी है नहीं, दिल से जो सोचो तो जरा,
एक जला ख़ाक हुआ और, ख़ाक में मिले कितने !! suryadeep19/10/2011

Monday, October 17, 2011

For Ms. Gita Pandit - 18/10/11

लकड़ियाँ गीली रहीं, आग सुलग नहीं पाई , 
रात भर रोया करी छत,  सुबह धूप नहीं आई, 
उठते देखा जो धुआं घर से, तो ख़ुदा खुश हो बैठा,
बच्चे ताकते रहे थाली, रोटियां नहीं आई !!..... suryadeep 18/10/2011

Wednesday, October 12, 2011

For Late. Shri Jagjeet Singh ji. 12/10/2011

मेरे आदर्श, मेरे पूज्य, जगजीत सिंह जी, जो आज इस दुनियाँ में नहीं हैं, इस बात पर दिल यकीन सा नहीं कर रहा है.
पर वास्तविकता यही है..कि मैंने जगजीत जी के साथ-साथ बहुत कुछ खो दिया है.. मेरी शामें और रातों की तन्हाईयाँ में अब वो मेरे साथ नहीं होंगे,
होंगी तो उनकी याद...उनकी रूहानी आवाज़... जिसने मुझे अब तक जिंदा रखा.... अश्रुपूरित श्रद्धांजलि स्वर्गीय जगजीत जी के लिए -

आज फिर आँख में नमी सी है,
आज फिर तेरी कुछ कमी सी है !
मेरे गीतों में रहा, तेरा वजू यूँ हरपल,
तू नहीं है, मेरे गीतों में कुछ ग़मी सी है !!
तेरा जाना यूँ अचानक, न रास आया मुझे,
यूँ लगे दिल की धडकनों में, कुछ कमी सी है !! suryadeep in sad mood :(

Monday, October 3, 2011

For Mr. Naresh Matia - For Their Love Poems - 03/10/2011

ये अहसास भी बहुत काम की चीज़ है न... नरेश जी... Naresh Matia ji
कई बार तो ये हमारे इतने पास होते हैं..कि इनकी खुशबू हमारे मन-मस्तिस्क में रच-बस जाती है...
और कई बार...ये सुखद स्वप्नों की तरह होते हैं... जो आपकी अपनी कामनाओं आपकी अतृप्त इच्छ
ाओं के कारण आपको दिखाई देते हैं.. और इन सबके बीच फंसा बेचारा प्रेम... जिसकी आवाज़ अतृप्त इच्छाओं और कामनाओं के शोरगुल में सुनाई नहीं पड़ती... और शायद तभी...हाँ.. तभी अहसास का जन्म हुआ होगा....जो आपको कुछ देर के लिए...स्वप्न की तरह सत्यता की ओर ले जाता है..और आप और आपकी आत्मा बस वहीँ रह जाती है....
आपकी कविता के सन्दर्भ में... वही अहसास...जो अभी तक आपने महसूस किया हुआ है...और उसी अहसास से आप अभी तक जुड़े हुए हैं...शायद वो प्रेम ही रहा होगा जिसने आपके इस अहसास को जन्म दिया... "शुभ" धन्यवाद :))

For Mr. Harish Tripathi - 03/10/2011


सरिता, धारा, हवाएं और जीव का चेतन निरंतर बहने और अनवरत क्रियाशील रहने के लिए प्रेरित करती हैं...
नदी और धाराओं की राह में पत्थर, हवाओं के मार्ग में पहाड़ रुपी बाधाएं और मन को भटकाने के लिए कई तरह की वासनाएं, महत्वाकांक्षी लोभ हर क्षण पैर पसारे पड़े रहते हैं... लेकिन हमारे मन को छोड़ कर सभी अर्थात प्रकृति उन बाधाओं के सामने हार नहीं मानती... और उन सभी बाधाओं को पार करती हुई निरंतर बहती रहती हैं..लेकिन हमारा मन हार जाता है...क्यों ?, क्योंकि मन नैसर्गिक नहीं है, अर्थात वो जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है, वह दिखावटी है, वह स्वार्थी है और सबसे बड़ी बात वो एक जगह या एक ठिकाने का नहीं है..इसलिए उस पर विश्वास भी नहीं हो पाता और.. वह हार जाता है...जबकि प्रकृति कभी दिखावा नहीं करती...वो जैसी है..वैसी ही रहती है..इसलिए उसका अस्तित्व ही उसके निरंतर चलते रहने में उसका सहयोग करता है...
और आपकी इस कविता के सन्दर्भ में आप प्रकृति के नज़दीक हैं..आप के पास अन्य लोगों से अधिक अवसर हैं..जहाँ आप प्रकृति की संगत पा सकते हैं और अपने आपको अपने मन को उसके अनुरूप ढाल सकते हैं.. और शायद ये प्रकृति का असर ही है.. जो आपकी इस सुन्दर कविता में परिलक्षित हो रहा है... साधुवाद.. "शुभ"
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - ०३/१०/२०११

Monday, September 26, 2011

For Mr. Pratibimb ji - Yojna aayog ne banaya gareeb aur gareebi ka mazaak


प्रतिबिम्ब जी...
बहुत ही सार्थक व्यंग्य कहूँगा..आपकी इस रचना को...
इस सरकार ने अपने हाथों से अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार कर...और समय समय पर अपनी बेअक्ली का सबूत देकर अपने आपको एक मसखरा ही साबित किया है...
हम तो ख्वामख्वाह ही लालू को कोसते रहे.... इस सरकार में तो एक एक बढकर एक लालू भरे पड़े हैं...अब कल की ही बात लेलो...केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट को सिखा रही है कि आपकी मर्यादा या हद कहाँ तक है... बोल रही है...आप चिदंबरम पर जांच के लिए आदेश पारित नहीं कर सकते.... हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इसका जवाब बहुत अच्छा दिया और...अब सीबीआई जांच के लिए तैयार हो गई है...खैर...
यहाँ बात चल रही है...उस मजाक की जो योजना आयोग ने..अभी २ दिन पहले...दिल्ली के रंगमंच से किया... कुछ पल के लिए तो सच कहें दिल को बहुत अच्छा लगा....वाह ३२ रूपये रोज़ में मेरा काम हो जायेगा... इसी ख़ुशी में मिठाई भी बांटने के लिए तैयार हो गया.... हलवाई की दुकान पर गया तो पता चला कि मिठाई का भाव कम से कम २५० रूपये प्रति किलो है... सर जी...हवा निकल गई...घर वापस आकर बैठा रहा और सोचता रहा...यार...३२ रूपये रोज़ में कैसे बात बनेगी... मैं तो अपनी ख़ुशी मैं किसी को शामिल नहीं कर पाऊँगा.... यही सोच रहा था...कि घर के बाहर से आवाज़ आई.... देखा तो इस्त्री करने वाला लड़का था....बोला साहब कपडे ले लो, इस्त्री कर दिया है.. मैंने कपडे लिए...और पुछा कितने पैसे बोला साहब १० कपडे के हिसाब से... २० रूपये.... मैंने दे दिए....फिर मैं वापस कमरे में आया...फिर हिसाब लगाया....यार ३२ रूपये में तो बात नहीं बनेगी.... इसी उधेड़बुन में पता ही नहीं चला कब ऑफिस जाने का वक़्त हो गया... अपनी मोटर साईकिल निकली, पेट्रोल चेक किया तो देखा...कि पेट्रोल दिख ही नहीं रहा है....बड़ी मुश्किल से धेकेल कर...पेट्रोल पम्प तक गया... पेट्रोल डालने वाला मुझको देख कर मुस्कुरा रहा था... नज़दीक आकर कहा.....साहब मैंने ३ दिन पहले ही कहा था...कम से कम १०० रूपये का पेट्रोल तो भरवा लेते...अब देखो...हो गए न परेशान.... मैंने मन ही मन सोचा... ३२ रूपये में बात नहीं बनेगी...खैर जेब से ढूढ़ कर उसे ५० रूपये दिए और कहा....ले इतने का डाल दे...क्या पता कल सरकार को अक्ल आजाये और पेट्रोल सस्ता हो जाये... फिर भरवा लूँगा..उसने बुरा सा मुहं बनाया और...पेट्रोल डाल दिया....
ऑफिस पहुंचा ही था...कि चपरासी मेरी सीट पर पहुंचा बोला "साहब मिठाई खाइए" मैंने पुछा... भाई किस ख़ुशी में मिठाई खिला रहे हो?" बोला... क्या साहब आप भी.. न्यूज़ नहीं देखते क्या... कल ही तो कहाँ है...वो मोंटेक सिंह जी ने... हम अमीर हो गए हैं.... मैंने चौक कर पुछा...भाई कैसे ? बोला... मेरी तनख्वाह ८० रुपया रोज़ है..यानि में रोज़ ८० रुपया रोज़ कमाता हूँ...और जो ३२ रूपये से ज्यादा कमाएगा वो अमीर होगा.. इसलिए हो गया न में अमीर" कहकर वो चल दिया...
वो खुश था..लेकिन उसके भीतर का दर्द मैं पढ़ सकता था...और मुझे उससे ज्यादा उसके परिवार वालों की फिक्र थी...वो नासमझ ये नहीं समझ सका कि उसकी इस ८० रूपये रोज़ वाली तनख्वाह के पीछे कितने लोग पल रहे हैं...उसके घर में माँ बाप, बीबी, १ बच्चे के अलावा एक छोटी बहन भी थी... मैंने गणित लगाया तो फिर सोचा....भाई...अब तो हद हो गई.... ३२ रूपये में बात बिलकुल नहीं बनेगी...
तो प्रति जी...बात कैसे बनेगी...कैसे पूरे होंगे मेरे सपने... कैसे में अपनी खुशियों में आपको शामिल कर पाऊँगा....कैसे....मेरे घर को बिजली रोशन करेगी....कैसे मुझे पीने को पानी मिलेगा.....कैसे...मैं अपने बच्चों को ३२ रूपये रोज़ मैं खाना खिला पाउँगा.....प्रति जी...३२ रूपये रोज़ में मैं कैसे जी पाउँगा....? अब तो यही सोच सोच कर टेंसन हो रही है... क्या मेरी मैयत का सामान भी...३२ रूपये में आ जायेगा...?
23 September at 09:46 AM

For Mr. Deepak Aroroa - 27/09/2011

पूर्णिमा जी...
बाकी तो सब अच्छा लिखा लेकिन.... ये क्या लिख डाला "ये दुनियां मर्दों की है सिर्फ मर्दों की"
मैंने वास्तविक हालातों को सामने रखा और माना....माना की बराबरी नहीं है... पुरुषों का आधिपत्य स्त्रीत्व पर भारी पड़ता है...पर उसका कारण है..एक सोच जो सदियों से चली आ रही है.. और सोच में परिवर्तन किया जा सकता है...इसलिए अपने आपको कमजोर मानना एक भूल है..और उस सोच को बढावा देना है.. जो चलती आ रही है... पूर्णिमा जी...आपने खुद कहा है...की नारी एक एक रूप काली,  दुर्गा और चंडिका भी है...और आप खुद ही नारी को कमजोर कह रही हैं...
कहाँ से हुआ जन्म इन रूपों का.... किसने दिया जन्म... काली को, दुर्गा को और चंडिका को.. या तो वो एक माँ (स्त्री) होगी...या फिर एक सोच दौनों में से कुछ भी हो सकती है... इसलिए अपने आपको कमजोर मान लेना...और ये सोचकर बैठ जाना कि ये समाज पुरुषों का है...हम नारियां कुछ भी नहीं कर सकती...ये धारणा गलत है... यह धारणा उस रूढ़िवादी सोच को बल ही देगी..कमजोर नहीं करेगी....इसलिए... उठो और पुरुषों के बराबर खड़े हो जाओ...और ये मत सोचो कि हम उनके बराबर नहीं हैं.. और सोच के लिए....बराबर, छोटा या बड़ा होना जरूरी नहीं.... बस हौसला, जूनून और एक सार्थक सोच की जरूरत होती है.... धन्यवाद... "शुभ"

Thursday, September 8, 2011

कि ख़त्म भ्रष्टाचार हो........ 07/04/2011