Wednesday, October 19, 2011

For Mr. OM Prakash Nautiyal - Ganga Nadiya - 19/10/2011

तरल तरंगिनी, पाप विमोचनी,
दुःख निवारिणी है गंगा,
मोक्ष प्रदायनी, भव भय हारिणी,
जन-जन जननी है गंगा,, {SURYADEEP}

for Myar Pahada (SN Ranjeet) - 19/10/11

नाम मज़हब का कुछ और ही रख दो यारो,
नाम पर इसके लूटे और गिरे घर कितने !!
बात कुछ भी है नहीं, दिल से जो सोचो तो जरा,
एक जला ख़ाक हुआ और, ख़ाक में मिले कितने !! suryadeep19/10/2011

Monday, October 17, 2011

For Ms. Gita Pandit - 18/10/11

लकड़ियाँ गीली रहीं, आग सुलग नहीं पाई , 
रात भर रोया करी छत,  सुबह धूप नहीं आई, 
उठते देखा जो धुआं घर से, तो ख़ुदा खुश हो बैठा,
बच्चे ताकते रहे थाली, रोटियां नहीं आई !!..... suryadeep 18/10/2011

Wednesday, October 12, 2011

For Late. Shri Jagjeet Singh ji. 12/10/2011

मेरे आदर्श, मेरे पूज्य, जगजीत सिंह जी, जो आज इस दुनियाँ में नहीं हैं, इस बात पर दिल यकीन सा नहीं कर रहा है.
पर वास्तविकता यही है..कि मैंने जगजीत जी के साथ-साथ बहुत कुछ खो दिया है.. मेरी शामें और रातों की तन्हाईयाँ में अब वो मेरे साथ नहीं होंगे,
होंगी तो उनकी याद...उनकी रूहानी आवाज़... जिसने मुझे अब तक जिंदा रखा.... अश्रुपूरित श्रद्धांजलि स्वर्गीय जगजीत जी के लिए -

आज फिर आँख में नमी सी है,
आज फिर तेरी कुछ कमी सी है !
मेरे गीतों में रहा, तेरा वजू यूँ हरपल,
तू नहीं है, मेरे गीतों में कुछ ग़मी सी है !!
तेरा जाना यूँ अचानक, न रास आया मुझे,
यूँ लगे दिल की धडकनों में, कुछ कमी सी है !! suryadeep in sad mood :(

Monday, October 3, 2011

For Mr. Naresh Matia - For Their Love Poems - 03/10/2011

ये अहसास भी बहुत काम की चीज़ है न... नरेश जी... Naresh Matia ji
कई बार तो ये हमारे इतने पास होते हैं..कि इनकी खुशबू हमारे मन-मस्तिस्क में रच-बस जाती है...
और कई बार...ये सुखद स्वप्नों की तरह होते हैं... जो आपकी अपनी कामनाओं आपकी अतृप्त इच्छ
ाओं के कारण आपको दिखाई देते हैं.. और इन सबके बीच फंसा बेचारा प्रेम... जिसकी आवाज़ अतृप्त इच्छाओं और कामनाओं के शोरगुल में सुनाई नहीं पड़ती... और शायद तभी...हाँ.. तभी अहसास का जन्म हुआ होगा....जो आपको कुछ देर के लिए...स्वप्न की तरह सत्यता की ओर ले जाता है..और आप और आपकी आत्मा बस वहीँ रह जाती है....
आपकी कविता के सन्दर्भ में... वही अहसास...जो अभी तक आपने महसूस किया हुआ है...और उसी अहसास से आप अभी तक जुड़े हुए हैं...शायद वो प्रेम ही रहा होगा जिसने आपके इस अहसास को जन्म दिया... "शुभ" धन्यवाद :))

For Mr. Harish Tripathi - 03/10/2011


सरिता, धारा, हवाएं और जीव का चेतन निरंतर बहने और अनवरत क्रियाशील रहने के लिए प्रेरित करती हैं...
नदी और धाराओं की राह में पत्थर, हवाओं के मार्ग में पहाड़ रुपी बाधाएं और मन को भटकाने के लिए कई तरह की वासनाएं, महत्वाकांक्षी लोभ हर क्षण पैर पसारे पड़े रहते हैं... लेकिन हमारे मन को छोड़ कर सभी अर्थात प्रकृति उन बाधाओं के सामने हार नहीं मानती... और उन सभी बाधाओं को पार करती हुई निरंतर बहती रहती हैं..लेकिन हमारा मन हार जाता है...क्यों ?, क्योंकि मन नैसर्गिक नहीं है, अर्थात वो जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है, वह दिखावटी है, वह स्वार्थी है और सबसे बड़ी बात वो एक जगह या एक ठिकाने का नहीं है..इसलिए उस पर विश्वास भी नहीं हो पाता और.. वह हार जाता है...जबकि प्रकृति कभी दिखावा नहीं करती...वो जैसी है..वैसी ही रहती है..इसलिए उसका अस्तित्व ही उसके निरंतर चलते रहने में उसका सहयोग करता है...
और आपकी इस कविता के सन्दर्भ में आप प्रकृति के नज़दीक हैं..आप के पास अन्य लोगों से अधिक अवसर हैं..जहाँ आप प्रकृति की संगत पा सकते हैं और अपने आपको अपने मन को उसके अनुरूप ढाल सकते हैं.. और शायद ये प्रकृति का असर ही है.. जो आपकी इस सुन्दर कविता में परिलक्षित हो रहा है... साधुवाद.. "शुभ"
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - ०३/१०/२०११