Thursday, December 29, 2011

For Teen Paati...(For Ms. Sunita Lakhera) - Ithlaati, Athkheliyan aur Manoram

‎"ठीक है".....उसने शरारत भरी मुस्कराहट के साथ अपने सतरंगी आँचल के किनारे को अपने श्वेत दन्त पंक्तियों के बीच दबाते हुए कहा कहा - "तुम कहते हो तो...मैं मान लेती हूँ...कि तुम मुझसे प्रेम करते हो, लेकिन....लेकिन मैं.. तो तुम्हें नहीं चाहती" कहकर वो धीमी मुस्कराहट के साथ इठलाती नदी की अठखेलियों को निहारने लगी..और मैं...मैं उसे....
अचानक मेरी ओर तिरछी नज़र करती हुई वो बोल उठी... "ऐसे क्यूँ देख रहे हो"
मैं फिर भी कुछ न बोला..और यूँ ही मंद-मंद मुस्कुराते हुए उसे निहारता रहा.. उसने फिर मेरी ओर देखा...पर कुछ नहीं बोला....मुझे उसकी आँखों मैं उसका सच उभर कर मुझे दिखाई देने लगा था... उसके गालों की लाली और कंपकंपाते होंठ इस बात की गवाही दे रहे थे..कि वो भी मुझे उतना ही चाहती है..जितना कि मैं उसे...वो मुझसे अधिक देर तक नज़रें नहीं मिला पाई... और फिर से प्रकृति के उस मनोरम दृश्य को निहारने लगी.....शायद इन खामोशियों की भी अपनी आवाज़ होती है...जिसे केवल खामोश रह कर ही सुना जा सकता है... 29/12/2011

For Teen Paati - (Baba Jays) - Abhivyakti, Kaamna aur Aasakti

"अभिव्यक्ति वह दर्शन है जो व्यक्ति के आतंरिक भावों को उसके ही शब्दों द्वारा प्रदर्शित करता है..और वह मौलिक होती हैं...
लेकिन कामना और आसक्ति उसकी कमजोरी होती है...और यह मौलिक होने के साथ-साथ परार्षित होती है..यह पैदा होती है..बढती है, पलती है....और एक दिन नष्ट हो जाती है...लेकिन अभिव्यक्ति कभी नष्ट नहीं हुआ करती.....
इसको आप ऐसे समझ सकते हैं...जैसे ये शरीर तो आपका है..साथ ही इसके गुण-अवगुण, इसका आकार-विकार, इसके कर्म-कर्तव्य भी आपके हैं...और यह नश्वर है...इसे  एक दिन नष्ट होना ही है....लेकिन आत्मा....आत्मा आपकी नहीं है...अगर वो आपकी होती तो वह आपका शरीर कभी नहीं छोडती... उसपर केवल परमात्मा का अधिकार है...और वही इसके लिए नए वस्त्र या शरीर का निर्माण करता है...
"अहम् ब्रह्मा अस्मि" ये शब्द आपके नहीं हैं...ये आत्मा के हैं.. और एक शुद्ध आत्मा कामना और आसक्ति से दूर ही रहा करती है... यदि वह किसी कारण से इन आसक्तियों अथवा कामनाओं से दूर नहीं हो पाती तो वह ब्रह्म में एकाकार नहीं हो पाती और न ही नए शरीर को धारण कर पाती है...क्योंकि जब तक आत्मा आसक्त रहेगी वह भटकती ही रहेगी"    "शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - ३०/१२/२०११  

Wednesday, December 21, 2011

For Ms. Kiran Arya - 19/12/2011 - Bhatkaav aur Thahraav

सही कहा..... प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी ने.... एक "जीवन दर्शन"....

भटकाव और ठहराव.....
"भटकना मनुष्य की प्रकृति है... और ठहराव उसका मोक्ष...तो मनुष्य हमेशा से ही भटकाव की स्तिथि से ठहराव की स्तिथि की और प्रयत्नशील रहता है....लेकिन ऐसा नहीं है की उसे भटकना नहीं चाहिए...उसे जरूर भटकना चाहिए...क्योंकि...भटकाव ही वो स्तिथि है..जहाँ वह स्वयं एवम मनुष्यता का विस्तार करता है..उस अवधि में उसके लिए ठहरना...अनिवार्य नहीं... ठहराव उसे इन सब परिस्थितियों से अलग ले जाता है...और वह एक योग की स्थिथि होती है...जहाँ कर्ता (मनुष्य) कर्ता (ईश्वर) के संपर्क में आ जाता है और अपना अस्तित्व उसके अस्तित्व में मिला देता है... तो.... ठहराव तो आपका अंतिम लक्ष्य है... भटकने से...मनुष्य को ज्ञान और अनुभव के साथ -साथ जीवन को जीने का अनुभव भी मिलता है... लेकिन ये आंशिक अथवा अधूरा सत्य है......सत्य तो केवल एक ही है....वो है...मोक्ष अथवा ठहराव
"शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १९/ १२/ २०११

For Teen Paati - (Pratibimb ji) - Tark, Vitark, Kutark - 22/12/2011


"तर्क सुशब्द सार्थक सदा,
वितर्क विलोम विधाय !
जेहि अक्षर नहीं घर-घट,
सोही कुतर्क कहलाय !! "
अर्थात - "किसी सार्वभौम विषय पर अपने शब्दों को समुचित और सार्थक रूप से रखने की विधि तर्क कहलाती है, वहीँ यदि उसी विषय पर आलोचनात्मक या विपक्ष टिपण्णी की जाती है तो वो वितर्क कहलाता है. और जो शब्द विषय से भटके हुए होते हैं, जिनका उस विषय से कोई सरोकार नहीं होता, अथवा जिन शब्दों का न घर होता है न संसार...वो कुतर्क कहलाते हैं.."
"शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी २२/१२/२०११

Tuesday, December 20, 2011

For Ms. Kalpana Pant - Pushtak Mitra - 20/12/2011


कल्पना जी,
सादर नमस्कार !!! बहुत ही उत्तम विचार आपने प्रस्तुत किये.... धन्यवाद......
प्राणी आदिकाल से ही नैसर्गिक रहा है... वह प्रकृति के बीच रहकर...प्रकृति से ही सीख कर अपना विकास करता आ रहा है.. और यही नैसर्गिकता उसको आज यहाँ तक लाने में सहायक रही है... जहाँ तक मानव मस्तिष्क की बात है.. उसने अपना बौद्धिक विकास नैसर्गिकता के माध्यम से ही किया है.. आपकी बात पूर्णतया सही है..कि बाल मस्तिष्क की उर्वर भूमि में उसी प्रकार के बीज बोने चाहिए... जो वहां भली भांति अंकुरित हो सके... लेकिन किसी बीज को जमीन में केवल रोप देने से...वह अंकुरित नहीं हो पाता...उसे जरूरत होती है.. प्रकाश (ऊष्मा), जल एवं वायु की... जो उसके भली भांति पनपने के लिए सहयोगी होता है...और पनपने पर वक़्त आने पर स्वादिस्ट फल एवम फूल भी देता है... मैं मानता हूँ...कि कुछ पौधे रेगिस्तान की तपती भूमि में, बिना जल के भी पनप जाते हैं.. लेकिन उनपर कांटे भी लगे होते हैं.. ये भी याद रखने योग्य बात है.....
इसी प्रकार मैं मानता हूँ....कि बालकाल का कुछ समय शिशु अपने चारों ओर देखकर...स्वयं समझकर...परखकर गुजारता है...जहाँ से वह काफी कुछ सीख पाता है.. कुछ और बड़ा होने पर...वह और अधिक जिज्ञासु हो उठता है..क्योंकि ज्ञान को पाने कि ललक ही मानव की; प्रकृति है.. तो उसकी जिज्ञासा उसके सामने कई प्रश्न खड़े कर देती है... जिनका उत्तर बहुतायत वह प्रकृति से या परिवार से पा लेता है..लेकिन कई प्रश्न ऐसे भी होते हैं..जहाँ प्रकृति और परिवार उसका जवाब नहीं दे पाते..तो ऐसे वक़्त पर यन्त्र, तर्क और प्रतिष्ठित ज्ञान उसकी इस भूख या जिज्ञासा को शांत करते हैं...तभी वह समुचित रूप से अपना विकास कर पाता है... 
अत: नैसर्गिकता के साथ-साथ बच्चों का यांत्रिक, तार्किक ज्ञान भी बहुत आवश्यक हो गया है... क्योंकि आप अगर गौर से देखेंगे तो पायंगे की प्रकृति या नैसर्गिकता भी एक तरह से विज्ञान ही है...क्योंकि इसके भी कुछ नियम होते हैं...और यह भी पैदा होती है...बढती है...और नष्ट होती है....एक मनुष्य अथवा किसी भी प्राणी की तरह..... "शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी  

For Teen Paati... 19/12/2011

कोहरे के बादल पर अंकित,
धुंध सी कोई कल्पना तेरी...
कभी छंट जाती, कभी छा जाती, 
यही यादों का अंदाज़ मेरी....  
"तेरी कल्पना...तेरी.. तस्वीर...जैसे कि कोहरे के बादल में लिपटी हुई....कभी दिखाई देती...कभी खो जाती....जैसे मेरी यादें......."

For Teen Paati... 19/12/2011


दिल के जख्मों को क्यूँ कुरेदे यहाँ, 
बीते पल की यूँ कोई बात न कर....
मेरी खामोश निगाहों का रख कुछ तो भरम, 
जलती आखों से न देख, कोई सवाल न कर.... (सुर्यदीप) १९/१२/२०११)  
 

For Teen Paati.... 19/12/2011


गुलो-गुलजार हुआ दिल, उनका दीदार हुआ..
आज किस्मत पे खुदकी, मुझको, ऐतबार हुआ..... 
हम परेशां थे कि, भुला किये है वो हमको ...
बाखुदा आईने से फिर, मुझको प्यार हुआ.... {सूर्यदीप} 19/12/2011  

Thursday, December 15, 2011

For Ms. Sunita Lakhera - Teen Paati - Kar, Kavi Kalpana - 15/12/2011


"ब्रह्म रचे ब्रह्माण्ड को, कर दिनकर-निशि एक,
क्षण में सृष्टी रचाई  दे, कर कवि कल्पना एक !!" 
अर्थात - "जिस सृष्टी को रचने के लिए ब्रह्मा अपने हाथों से अनवरत प्रयास रत रहते हैं.. उसकी रचना एक कवि, मात्र कल्पना से ही कर देता है ".


 सुर्यदीप - १५/१२/२०११ 

Wednesday, December 14, 2011

For Mr. Pratibimb ji - Darshan - 15/12/2011


प्रतिबिम्ब जी... आपकी इन पंक्तियों में एक "दर्शन" है... लेकिन मैं फिर भी एक दृष्टांत कहना चाहूँगा.....शायद इससे इस दर्शन को समझा जा सके.... :) 
कुछ लोग होते हैं.. जो रास्ते के पत्थरों को ठोकर मार कर आगे बढ़ते चले जाते हैं....और अपनी मंजिलों को पा जाते हैं...
मंजिल या सफलता को पाने के पश्चात वह जल्दी - जल्दी उसका भोग करने लगता है...और वही सफलता उसके व्यक्तित्व पर हावी हो जाती है, और उसके वास्तविक व्यक्तित्व या वजूज़ को उससे बहुत दूर कर देती है, फिर जब सफलता का उन्माद खत्म होता है, तो उसे अपने आस पास अपने सिवा कोई नज़र नहीं आता, वह फिर से उठना चाहता है, लेकिन सफलता का नशा जो की उसकी कमजोरी बन चुका होता है, उसे खड़ा नहीं होने देता....वह फिर से अपनी मंजिल तलाशने चल पड़ता है, रास्ते में उसे वही पत्थर फिर से मिलते हैं...लेकिन अब उसके बाजुओ में वो ताकत नहीं होती की वो उसे उठाकर साथ ले जा सके...वो उन्हीं पत्थरों से सर टकरा-टकराकर अपने आप को ख़त्म कर देते हैं....
कुछ लोग होते हैं.... जो रास्ते के पत्थरों को ठोकर नहीं मारते, अपने साथ-साथ लाद कर ले जाते हैं...पर मंजिलों को जरूर पाते हैं...चाहे कुछ देर से ही क्यों ना... वो अपनी सफलता का स्वाद चख-चख कर लेते रहते हैं....जिससे सफलता का नशा उनपर हावी नहीं हो पाता और वह सफलता के साथ-साथ चलते चलते अपने वजूद या व्यक्तितिव को भी मूल रूप से बनाये रखे होते हैं...उसे ख़त्म नहीं होने देते. यदि दुर्भाग्यवश कभी सफलता उन्हें छोड़ के चली भी जाती है..तो वो निराश नहीं होते... वो अपनी बंद अलमारी में से रास्ते के उन पत्थरों को बाहर निकालते हैं...और उनको देख और परख कर वापस उन्हें संभल देते हैं...भावी उत्तराधिकारियों के लिए.. और वो खुद फिर से अपनी मंजिलें तलाशने निकल पड़ते हैं....उन्हें मंजिल बहुत जल्द मिल जाती है....क्योंकि उनके रास्ते में उन्हें वो पत्थर नहीं मिलते..जो उसकी सफलता में रुकावट थे...क्योंकि उन पत्थरों को उसने बहुत पहले ही अपना लिया था...और उनका हल भी खोज लिया था...
तो जब भी आप किसी मंजिल की ओर चलें...तो रास्ते में आने वाली तमाम रुकावटों, पत्थरों को अपनाते हुए, उनका हल निकालते हुए, अपने साथ लेकर चले...ताकि आपके चेहरे पर...आपके व्यक्तितिव पर...उन रुकावटों, समस्याओं को हल करने का अभुभव आपके साथ ताउम्र रहे.... "शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १५/१२/२०११ 

Saturday, December 10, 2011

For Mr. Ramesh Barola - Pagalpan, Deewanapan aur Psycho - 10/12/2011

दीवानापन और पागलपन वह अवस्थाएं हैं जहाँ आपका मस्तिस्क आपके नियंत्रण में पूरी तरह नहीं रह पाता.
ये वो अवस्था या स्तिथि होती है जब आपके दिमाग में केवल एक ही चीज़ हर समय विचरण करती रहती है, और उसी जगह पर आपका मस्तिस्क अपने विचारों को रोक लेता है इसलिए वही उस व्यक्ति की जिंदगी बन जाती है और उसे ही वह बार बार दोहराया करता है, लेकिन जैसा कि आपने इन शब्दों को किसी को चाहने के सन्दर्भ में लिया है तो उसी सन्दर्भ में कहना चाहूँगा कि "जब आप किसी को इस तरह से चाहने लगते है, कि आपके दिमाग पर, आपके व्यक्तित्व पर वो एक नशे की तरह छा जाता है, और उसी के बारे में सोचना, बोलना या उसी को देखना आपका दिमाग पसंद करने लगता है, यही अवस्था पागलपन और दीवानेपन की हद तक किसी को चाहना होता है, ऐसी स्थिति में किसी को चाहना एक हद तक ही होता है, और यहाँ आपके प्रेम में आपका स्वार्थ हावी नहीं रहता. लेकिन...
phycho (साइको) एक प्रकार का मनोरोग है, एक भ्रम है, जहाँ किसी भी चीज़ या किसी को पाने की लालसा उसके मन-मस्तिष्क में ही नहीं, अपितु उसके अमर्यादित व्यवहार में भी दिखाई देती है, चाहना बुरी बात नहीं, लेकिन छीनना बुरी बात है, यहाँ phyho (साइको) व्यक्ति यही करता है, उसका प्रेम, प्रेम न होकर आसक्ति बन जाता है, जो ठीक नहीं, और इसका इलाज़ जरूरी है.
"संक्षेप में किसी की पूजा करने में बुराई नहीं है, लेकिन उस पर आसक्त होना ठीक नहीं" "शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १०/१२/२०११

Thursday, December 8, 2011

For Ms. Kusum Sharma - Teen Paati - Tootte, Judte, Bhoolte - 9/12/2011


टूटते खाब, सिसकते अरमा,
हर किसी आँख में नमी क्यूँ है !
दर्द का रिश्ता यहाँ, जुड़ते क्यूँ लगे सदियाँ,
दिल के कौने में ये कमी क्यूँ है !
क्यूँ नहीं भूलते कि अब हम हैं नहीं,
उनके चेहरे पे ये ग़मी क्यूँ है !  {सुर्यदीप}  9/12/2011

For Mr. Ashok Rathi - 9/12/2011 - TEEN PAATI - SAT RAJ TAM


सत मानस एक रूप हरी, रज एक मूल विधाय,
तम एक खंभ महेश सम, सृष्टी देहि रचाय !!   
अर्थात - पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सत को एक बीज की संज्ञा दी गई है, बीज जहाँ से उत्पत्ति होती है, और उसे हरी अथवा विष्णु के सामान माना गया है.
रज को एक जड़ माना गया है, जो बीज से उत्पन्न हुई है और ब्रह्मा उनका नाम है, इसी प्रकार जड़ से उत्पत्ति हुई है एक स्तम्भ की, एक तने की, जो शिव शंकर का पर्याय है, इन तीनों गुणों से मिलकर सृष्टी का निर्माण हुआ करता है. कई जगह इन तीनों शब्दों का उल्लेख वानस्पतिक संधर्भ में भी लिया गया है. {सुर्यदीप}

Saturday, December 3, 2011

For Mr. Anoop Bosliyal - Teen Paati - 3/12/2011

गंगा कलि-मल हारिणी, जमुना पालनहार !
सर-सर जुड़ भई सरस्वती, देहि अन्न अपार !! सुर्यदीप - ०३/१२/२०११

Friday, December 2, 2011

For Mr. Shastri RC - Teen Paati - 3/12/2011

नव निधि, दस गुन ते सदा,
जेहि भूषण कर्म, सुज्ञान !
बिपदा पल संग छाडिहें,
हरी उपासना, नित ध्यान !!!
अर्थात - जिस व्यक्ति के आभूषण ही सुकर्म और सुज्ञान होते हैं, उसी के पास नव निधियों का सुख और सदगुणों का साथ होता है.
और नित्य ध्यान और हरी की उपासना करने से कोई भी विपत्ति पल भर में ही आपका साथ छोड़ देती है. "शुभ

Thursday, December 1, 2011

For Mr. Vishal Agarwal - Teen Pati - 02/12/12

दर्द चेहरे का छिपाएं कैसे,
ये कसक उम्र की कमाई है,  
दिल ने दागों का हो बयां कैसे, 
दिल ने दिलबर से चोट खाई है....
रूह तो नाम कर ही दी उसके, 
बात अब जिस्म की भी आई है.. !!!  सुर्यदीप