Monday, October 3, 2011

For Mr. Harish Tripathi - 03/10/2011


सरिता, धारा, हवाएं और जीव का चेतन निरंतर बहने और अनवरत क्रियाशील रहने के लिए प्रेरित करती हैं...
नदी और धाराओं की राह में पत्थर, हवाओं के मार्ग में पहाड़ रुपी बाधाएं और मन को भटकाने के लिए कई तरह की वासनाएं, महत्वाकांक्षी लोभ हर क्षण पैर पसारे पड़े रहते हैं... लेकिन हमारे मन को छोड़ कर सभी अर्थात प्रकृति उन बाधाओं के सामने हार नहीं मानती... और उन सभी बाधाओं को पार करती हुई निरंतर बहती रहती हैं..लेकिन हमारा मन हार जाता है...क्यों ?, क्योंकि मन नैसर्गिक नहीं है, अर्थात वो जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है, वह दिखावटी है, वह स्वार्थी है और सबसे बड़ी बात वो एक जगह या एक ठिकाने का नहीं है..इसलिए उस पर विश्वास भी नहीं हो पाता और.. वह हार जाता है...जबकि प्रकृति कभी दिखावा नहीं करती...वो जैसी है..वैसी ही रहती है..इसलिए उसका अस्तित्व ही उसके निरंतर चलते रहने में उसका सहयोग करता है...
और आपकी इस कविता के सन्दर्भ में आप प्रकृति के नज़दीक हैं..आप के पास अन्य लोगों से अधिक अवसर हैं..जहाँ आप प्रकृति की संगत पा सकते हैं और अपने आपको अपने मन को उसके अनुरूप ढाल सकते हैं.. और शायद ये प्रकृति का असर ही है.. जो आपकी इस सुन्दर कविता में परिलक्षित हो रहा है... साधुवाद.. "शुभ"
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - ०३/१०/२०११

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