प्रेम समर्पण माँगता है...तभी पूर्णता को प्राप्त होता है..
प्रेम वो नदिया है...जो केवल बहना जानती है... ऊँचें-नीचे पहाड़ों से, दर्रों से, कभी रेतों के घरोंदों से.....किसलिए.. अपने प्रेम रुपी समुद्र को पाने के लिए...
और उसी में विलुप्त हो जाने के लिए...अपना अस्तित्व खो देने के लिए...प्रेम भी यही है...यहाँ अपना अस्तित्व खोना पड़ता है, और स्वयं को समर्पित करना होता है..
"शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी
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