कल्पना जी,
सादर नमस्कार !!! बहुत ही उत्तम विचार आपने प्रस्तुत किये.... धन्यवाद......
प्राणी आदिकाल से ही नैसर्गिक रहा है... वह प्रकृति के बीच रहकर...प्रकृति से ही सीख कर अपना विकास करता आ रहा है.. और यही नैसर्गिकता उसको आज यहाँ तक लाने में सहायक रही है... जहाँ तक मानव मस्तिष्क की बात है.. उसने अपना बौद्धिक विकास नैसर्गिकता के माध्यम से ही किया है.. आपकी बात पूर्णतया सही है..कि बाल मस्तिष्क की उर्वर भूमि में उसी प्रकार के बीज बोने चाहिए... जो वहां भली भांति अंकुरित हो सके... लेकिन किसी बीज को जमीन में केवल रोप देने से...वह अंकुरित नहीं हो पाता...उसे जरूरत होती है.. प्रकाश (ऊष्मा), जल एवं वायु की... जो उसके भली भांति पनपने के लिए सहयोगी होता है...और पनपने पर वक़्त आने पर स्वादिस्ट फल एवम फूल भी देता है... मैं मानता हूँ...कि कुछ पौधे रेगिस्तान की तपती भूमि में, बिना जल के भी पनप जाते हैं.. लेकिन उनपर कांटे भी लगे होते हैं.. ये भी याद रखने योग्य बात है.....
इसी प्रकार मैं मानता हूँ....कि बालकाल का कुछ समय शिशु अपने चारों ओर देखकर...स्वयं समझकर...परखकर गुजारता है...जहाँ से वह काफी कुछ सीख पाता है.. कुछ और बड़ा होने पर...वह और अधिक जिज्ञासु हो उठता है..क्योंकि ज्ञान को पाने कि ललक ही मानव की; प्रकृति है.. तो उसकी जिज्ञासा उसके सामने कई प्रश्न खड़े कर देती है... जिनका उत्तर बहुतायत वह प्रकृति से या परिवार से पा लेता है..लेकिन कई प्रश्न ऐसे भी होते हैं..जहाँ प्रकृति और परिवार उसका जवाब नहीं दे पाते..तो ऐसे वक़्त पर यन्त्र, तर्क और प्रतिष्ठित ज्ञान उसकी इस भूख या जिज्ञासा को शांत करते हैं...तभी वह समुचित रूप से अपना विकास कर पाता है...
अत: नैसर्गिकता के साथ-साथ बच्चों का यांत्रिक, तार्किक ज्ञान भी बहुत आवश्यक हो गया है... क्योंकि आप अगर गौर से देखेंगे तो पायंगे की प्रकृति या नैसर्गिकता भी एक तरह से विज्ञान ही है...क्योंकि इसके भी कुछ नियम होते हैं...और यह भी पैदा होती है...बढती है...और नष्ट होती है....एक मनुष्य अथवा किसी भी प्राणी की तरह..... "शुभ" सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी
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