नरेश जी,
क्या कहूं.... इन शब्दों को पढ़कर, कुछ बोलने और लिखने को मन नहीं करता, बस चाहता है कि कुछ पल, कुछ क्षण बस नैनों की ही भाषा में बात की जाए, पर अभी ये मुमकिन नहीं.... बहुत ही भावपूर्ण शब्दों का चयन और एक मनोहर कृति है ये..... वो प्रसंग याद आ पढता है....जब...
पिय जाए बनवास को, मनहूँ न आये चैन,
मन की मन रह गई, बरस पडत दोउ नैन !!
अंसुवन धार पिय देखि के, बिकल होहु रघुबीर,
सिय मन रघु पढ़ लियो, जान सन्देश गंभीर !!
"जब प्रभु राम बनवास को जाने लगे, और उन्होंने कहा कि उन्हें स्वयं ही इस वचन का पालन करना है, और वह अकेले ही बनवास को जायेंगे, यह सुनकर सीता का मन बैचैन हो उठा, और संकोचवश उनकी मन की बात मन में ही रह गई, लेकिन उनकी दोनों आँखें रो पड़ी, उनके आंसुओं से बहती धार को देखकर श्री राम भी व्याकुल हो उठे, उन्होंने इन बहती धार में छिपे सीता के सन्देश को पहचान लिया, जान लिया कि सीता भी उनके साथ जाना चाहती है," शुभ "सुर्यदीप २८/०३/२०११
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