ऐ री सखी,
कहो उस भँवरे से, पास न आये हमार...
आस लगी मोहे, पिय के मिलन की,
बिरहन पीड़ अपार "
रात कटत अंधियारी कारी,
दिन नित पथ को निहार"
सेज श्रृंगार सजाऊं नित अपना,
साँझहूँ देऊ बिगार"
नैना मोरे काजर बिन कारे,
कारी अँसुवन की धार"
कारे मेघ बरस जल शीतल,
तृष्णा मन की अपार"
सुन भँवरे, पीड़ समझ मोरी,
लागत बोल प्रहार"
{ऐ मेरी प्यारी सखी, उस भँवरे को जाकर समझाओ..और कहो..कि इस प्रकार वो मेरे पास आने कि चेष्टा न करे, क्योंकि मैं बिरहा कि मारी हूँ, मुझे मेरे प्रियतम की प्रतीक्षा है, और उसका इस तरह मेरे नज़दीक आना मुझे और व्याकुल कर देता है, मैं मेरी रातों को आँखों ही आँखों में उसके कालेपन को देखते हुए काट देती हूँ, और मेरा दिन उसके रस्ते को देखते हुए कट जाता है, रोज में अपनी सेज सजाती हूँ, श्रृंगार करती हूँ, लेकिन शाम होते ही मुझे लगता है की ये सब बेकार है, और जिन काले नैनों की तरफ तुम आकर्षित हो, वो कजरे की वजह से नहीं अपितु दिन रात बहते बिरह के काले आंसुओं के कारण है.... और ऊपर से ये बादल बरस तो जाते हैं, धरती की प्यास बुझा तो देते हैं..पर इस मन का क्या करूँ.. जिसकी प्यास का कोई छोर नहीं है.... इसलिए अलि...भँवरे तुम कहीं और जाओ. इस समय से सब बातें मुझे और पीड़ा पहुंचा रही हैं..जाओ...मुझे और मत तडपाओ}
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