प्रेम का दीप जला घट भीतर, काहे घट-घट भागे रे !
बास बसत कस्तूरी अंतर, मृग पग-पग क्यूँ भागे रे !!
काया सुन्दर बहुत सवाँरी, ऊपर उज्जवल चादरिया !
मन का मैल बहुत ही काला, दर्पण में तन देखे रे !!
प्रीत की राह बहुत ही मुश्किल, सोच-समझ पग धरियो रे !
प्रीतहूँ भस्म भया पतंगा, जीवत जलत अभागे रे !!
किरनजी, बहुत ही सुन्दर जिज्ञासा, पर इन सवालों से तो दुनिया सदियों से जूझ रही रही है,
पर जवाब अभी तक नहीं मिल पाया.. और मिलेगा भी नहीं.....क्यों ये शायद आप अच्छी तरह समझ सकती हैं..
"शुभ" सुर्यदीप - १०/०३/२०११
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