किरन जी..... प्रेम का प्रथम पग ही...पागलपन से शुरू होता है... बहुत सुन्दर....पागलपन.....है ये...आपका भी....जैसे मीरा का था.....
"पा बैठी संसार को, जो मन प्रीत लगाईं,
पगली पगली सब कहें, मूरत नेह बढाई !!
भेद न जाने प्रेम का, डोलत हैं चहुँ ओर,
पागल भई गल पा गई, मन शंका नहीं और !!
"जब से मींरा के मन में कृष्ण के प्रति प्रेम के बीज उत्पन्न हुए, तभी से उसने जैसे सारे संसार को प्राप्त कर लिया हो, जब वो कृष्ण की मूरत में ही अपने प्रियतम को खोजने लगी तो लोग उसे पगली पगली कहने लगे....लेकिन मींरा ने बताया, कि हाँ में पगली हूँ... और कृष्ण की दीवानी हूँ... और जब से में पगली हुई हूँ, तब से मुझे मेरा रास्ता साफ़ दिखाई देने लगा है, अब मन में कोई दूसरा कोई विचार या शंका नहीं है, क्योंकि पागलपन मन को निश्चल बना देता है और उसे वही अच्छा लगता है..जो उसके मन में होता है....और वो पवित्र होता है.... "शुभ" सुर्यदीप १८/०३/२०११
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