भूल कर बैठा हूँ, रस्ता अपना,
भूल कर बैठा हूँ, सपना अपना,
दूर हो बैठा हूँ, सबसे कितना,
अख्श पानी का है ये धुंदला कितना...
लोग अब भी कई मिलते हैं, एक सपने की तरह...
रूबरू होने का वो मज़ा था सच्चा, कितना....
दाद देते हैं पयामों से, या किन्हीं इशारों से यहाँ,
हाथ को थाम, गले हँसके लगाना था वो अच्छा, कितना ..
प्रति जी....फेसबुक महिमा का सुन्दर बखान... धन्यवाद !!
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