प्रतिभा जी, बहुत ही मनोहर दृश्य है ये संध्या काल का... रमणीय, लेकिन देखकर लगता है आज रवि बाबू, घर नहीं लौटना चाहते, लेकिन आकाश दादा उसे उसके घर की ओर धकेलता जा रहे हैं, कह रहे हैं अभी तू जा कल सुबह फिर आना, क्योंकि चंदा मामा के आने का वक्त भी हो चला है, लेकिन रवि बाबू नहीं मान रहे, और बार-बार अपनी हाथों की रस्सी को आकाश की तरफ फ़ेंक रहे हैं, इसी आशा से की आकाश उन्हें वापस अपने आगोश में खींच ले और कह रहे हैं....
ऐ गगन, असीम आँगन तेरा,
कुछ पल मुझे और यहाँ खेलने दे,
सुनता हूँ कि होती है रात हसीं,
कुछ पल की ख़ुशी मुझे लेने दे,
तू फिक्र न कर, चंदा की,
मैं चुपके-चुपके आऊँगा,
छिप कर बैठूँगा एक कोने में,
काले बादल कुछ ओढूंगा,
सुर्यदीप ३०/०३/२०११
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